जदयू सांसद शिवानन्द तिवारी का दर्द किसी से छुपा नहीं है। वे छुपाते भी नहीं हैं। साफ-साफ बोलने में विश्वाश करते हैं। उन्होंने पटना में दैनिक हिंदुस्तान द्वारा आयोजित समागम में स्वीकार किया कि sअवर्ण जातियों की राजनीति में हालत बुरी हो गयी है। वे राजनीति की पहली लाइन से बाहर हो गए हैं। उनके ही शब्दों में- हम नीतिश की ढोल बजाये या लालू की या किसी और की। बजाना ढोल ही है।
यह दर्द अकेले शिवानन्द तिवारी की नहीं है। इससे सारा सवर्ण जात पीड़ित है। संख्या बल में कम होने और लोकतंत्र की जड़ मजबूत होने के साथ सवर्ण सत्ता की राजनीति में कमजोर होते गए। पिछड़ी जातियों के साथ गढजोड़ उनकी मजबूरी हो गयी। भाजपा का जदयू के साथ गठबंधन इसी का नतीजा है। जेपी आन्दोलन के महत्वपूर्ण नेता रहे शिवानन्द तिवारी को आन्दोलन के करीब २० साल बाद विधान सभा में जाने का मौका मिला।
यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि शिवानन्द तिवारी ने १९७७ के विधान सभा चुनाव में जनता पार्टी का टिकट लौटा दिया था कि जिस वन्सवाद के खिलाफ हम लड़ते रहे हैं , उसको बढ़ावा नहीं देंगे। उल्लेख्निये है कि उस समय उनके पिता रामानंद तिवारी सांसद थे।
शिवानन्द तिवारी एक मात्र नेता हैं, जिनका नीतिश कुमार और लालू यादव दोनों के दरबार मजबूत पकड़ रही है। अपनी वाक्पटुता के लिए भी वे जाने जाते रहे हैं। लालू यादवने उन्हें राज्य सभा में नहीं भेजा तो वे नीतिश का ढोल बजाने लगे और नीतिश ने ढोल बजाने के लिए राज्य सभा में भेज दिया।
एक बार लालू चालीसा लिखने वाले को लालू यादव ने राज्य सभा में भेज दिया था तो नीतिश ने ढोल बजाने वाले को राज्य सभा में भेज दिए।
इससे इत्तर देखे तो शिवानन्द तिवारी की पीडा बदल रहे सामाजिक ढांचे को लेकर भी है समाजवाद की राजनीति करते-करते वे कब brahmanvad और सवर्णवाद की राजनीति करने लगे, ये बात उनके करीबी लोगों को भी समझ में नहीं आयी। उनके बदलाव को लेकर हम मुखालफत करते रहें हैंसवर्णवाद की राजनीति में कामयाब हो , यही कामना है।
बुधवार, 21 अक्टूबर 2009
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